इतिहास के झरोखे . *बारां जिले के सहरिया आदिवासी*
किशनगंज शाहाबाद क्षेत्र बांरा जिले का सहरिया बहुल आदिवासी क्षेत्र है ।मैं उन लोगो के बीच में ही रहता हूँ इसलीऐ उनके रीतिरिवाज ,सामाजिक पंरपरा को अच्छे से जानते है।वास्तव मे सहरिया जाति के लोग बहुत सीधे सरल,मिलन सार स्वभाव के सहयोग करने वाले लोग होते है । यह बहुत मेहनत कश कौम है ।जो भुखी रहकर भी काम करते है लेकिन किसी से कोई शिकायत नहीं । इनको यदि रोटी मिलती है तो वे उसे अपने साथियो के साथ बांटकर खाते है ।यह आज भी गरीबी रेखा के नीचे अपना जीवन यापन करते है।आज भी विकास इनसे कोसो दुर है क्योंकि गरीबी अशिक्षा के कारण इनका बहुत शोषण हुआ है ।फिर भी इनकी किसी से कोई शिकायत नहीं ।यह पुरी तरह से सामाजिक लोग है ।अपने तीज त्यौहार पुरे हर्ष उल्लास से मनाते है ।इसके घर ज्यादातर कच्चे या झोपडे नुमा होते है ।लेकिन उन घरो की लिपाई पुताई और कलात्मकता देखकर आप इनके कलाप्रिय होने का अनुमान लगा सकते है।सहरिया आदिवासी कौम बांरा जिले की विशेष पहचान है ।इतनी आधूनिकता के बावजुद इन्होने अपने पुराने पंरपराओ और रीतिरिवाजो को बनाय रखा है।सहरिया आदिवासी नृत्य बांरा जिले के कही क्षेत्रो में किया जाता है ।पुरे राजस्थान मे इन लोक कलाकारो को जाना जाता है।प्राचीन समय मे यह लोग जंगलो मे निवास करते थे ।जंगली कंद मुल फल व पैदावार इनका भोजन हुआ करता था ।चुंकि शेर जंगल मे रहते थे ।कही बार शेरो से इन लोगो का पाला पडता रहता था। चुकिं यह कौम भी शेर के समान बहादुर थी ।हो सकता है उसी के शेर शब्द से सहर शब्द बना हो और बाद मे शेर के समान बहादुरी के कारण यह कौम सहरिया कहलाई हो सकता है यह मेरी कल्पना हो या हो सकता इस बात मे कुछ सत्य हो लेकिन इनमे आपस मे भाईचारा और सौहार्द खुब होता है ।होली दिपावली दशहरा जैसे त्यौहारो को बडे आंनद के साथ मनाते है ।जब हम छोटे छोटे तभी से देखते आ रहे है ।रसोईयो मे सबको एक समान गिनगिन कर खाना रखा जाता था ।शादी के घरो को जंगली जामुन के पेडो की पत्तियो से मंडप को सजाया जाता था ।बहुत सारे मेहमान अपने वाद्य यंत्र खासकर ढोलक लेकर आते बारात दो तीन दिन रुकती खुब नाचगान के साथ मनोरंजन होता था ।
✍️हंसराज नागर लेखक आदिवासी क्षेत्र नाहरगढ बांरा राजस्थान